Wednesday, February 9, 2011

Compositions of Natha Siddhas

Nath Siddho ki Baniya
The Book Compositions of the Natha Siddhas in the local dialects of the Northern India

इस संग्रह में जिन नाथ सिद्धों की रचनाएँ संग्रहीत हैं, उनमें से अधिकांश चौदहवीं शताब्दी (ईशवी) के पूर्ववर्ती हैं। कुछ चौदहवीं शताब्दी के हैं और बहुत थोड़े उसके बाद के। भाषा की दृष्टि से इन पदों का महत्त्व स्पष्ट है। यद्यपि इन रचनाओं के रूप बहुत विकृत हो गए हैं, परंतु भाषा का कुछ न कुछ पुराना रूप उनमें रह गया है। खड़ी बोली का तो इन पदों में बहुत अच्छा प्रयोग हुआ है। खड़ी बोली के धाराप्रवाहिक प्रयोग का नया स्रोत इन पदों में पाया जाएगा।

हजारीप्रसाद द्विवेदी

भूमिका

नाथ सिद्धों की हिन्दी रचनाओं का यह संग्रह कई हस्तलिखित प्रतियों से संकलित हुआ है। इसमें गोरखनाथ की रचनाएँ संकलित नहीं हुईं, क्योंकि स्वर्गीय डॉ० पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की रचनाओं का संपादन पहले से ही कर दिया है और वे ‘गोरख बानी’ नाम से प्रकाशित भी हो चुकी हैं (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग)। बड़थ्वाल जी ने अपनी भूमिका में बताया था कि उन्होंने अन्य नाथ सिद्धों की रचनाओं का संग्रह भी कर लिया है, जो इस पुस्तक के दूसरे भाग में प्रकाशित होगा। दूसरा भाग अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है अत्यंत दुःख की बात है कि उसके प्रकाशित होने के पूर्व ही विद्वान् संपादक ने इहलोक त्याग दिया। डॉ० बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित 40 पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम 14 ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है। पुस्तकें ये हैं-



1.सबदी
2. पद
3.शिष्यादर्शन
4. प्राण सांकली
5. नरवै बोध
6.आत्मबोध
7. अभय मात्रा जोग
8. पंद्रह तिथि
9. सप्तवार
10. मंछिद्र गोरख बोध
11. रोमावली
12. ग्यान तिलक
13. ग्यान चौंतीसा
14 पंचमात्रा
15. गोरखगणेश गोष्ठी
16 गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)
17 महादेव गोरखगुष्टि
18. शिष्ट पुराण
19. दया बोध
20 जाति भौंरावली (छंद गोरख)
21. नवग्रह
22. नवरात्र
23 अष्टपारछ्या
24 रह रास
25 ग्यान माला
26 आत्मबोध (2)
27. व्रत
28. निरंजन पुराण
29. गोरख वचन
30. इंद्री देवता
31 मूलगर्भावली
32. खाणीवाणी
33. गोरखसत
34. अष्टमुद्रा
35. चौबीस सिध
36 षडक्षरी
37. पंच अग्नि
38 अष्ट चक्र
39 अवलि सिलूक
40. काफिर बोध

गोरखनाथ की प्रामाणिक समझी जाने वाली रचनाएँ प्राकाशित हो जाने के कारण इस संग्रह में उन्हें नहीं लिया गया। अन्य सिद्धों की जो रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं, उन्हें प्रकाशित किया जा रहा है।
इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ नागरी प्राचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय में सुरक्षित तीन हस्तलिखित पुस्तकों से संग्रह की गई हैं। इसके पदकर्ताओं का विवरण इस प्रकार है-
‘क’ प्रति अर्थात् नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के आर्यभाषा पुस्तकालय में सुरक्षित हस्तलिखित पुस्कत सं० 1409 से संग्रहीत सिद्धों की सूची (इस प्रति का लिपिकाल सं० 1771 वि० है।) –

सिद्ध नाम पद संख्या
1 गोरखनाथ 156
2. चरपट जी 55
3. भरथरी 32
4. गोपीचंद्र 18
5. जलंध्री पाव 9
6. हाली पाव 5
7. मीडकी पाव 7
8. काणेरी पाव 6
9. जती हणवंत 89
10 नागाअरजन जी 3
11. महादेव जी 10
12. पारबती जी 6

‘ख’ प्रति अर्थात् नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के आर्यभाषा पुस्तकालय में सुरक्षित हस्तलिखित पुस्तक सं० 1408 से संग्रहित सिद्धों की सूची (इस प्रति का लिपिकाल सं० 1836 वि ० है।)-

सिद्ध नाम पद संख्या

1. मछेन्द्र जी के पद 1
2. गोरखनाथ 183
3. चरपटनाथ 58
4. भरथरी 37
5. हणवंत 1
6. बाल गुंदाई 2
7. सिधगरीब जी 9
8. देवल जी 5
9. दत्त जी 17
10. गोपीचंद्र जी 35
11. जलंध्री पाव 9
12. बालनाथ 6
13. धूँधलीमल 14
14. चौरंगीनाथ 4
15. सिंध घोड़ाचोली 15
16. सिध हरताली 6
17. हालीपाव 7
18. मीडकी पाव 7
19. चुणकर नाथ 4
20. अजैपाल 10
21. पारबती जी 6
22. महादेव जी 15
23. हणवंत जी 9
24. सती काणेरी 6
25. पृथ्वीनाथ 118
‘ग’ प्रति अर्थात् नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के आर्यभाषा पुस्तकालय में सुरक्षित हस्तलिपि पुस्तक नं० 873 से संग्रहित सिद्धों की और उनकी रचनाओं की सूची (इस प्रति लिपिकाल 1855-56 वि० है।)-

सिद्ध नाम

1. ग्रंथ गोरख बोध
2. दत्तात्रे गोरख संवाद
3. गोरख गणेश गुष्टि
4. ग्रंथ ग्यान तिलक
5. ग्रंथ अभैमातरा
6. ग्रंथ बतीस लछन
7. ग्रंथ सिष्टि पुराण
8. चौबीस सिध्या
9. आत्मा बोध ग्रंथ
10. ग्रंथ षड़ाछिरी
11. रहरासि ग्रंथ (दयाबोध)
12. ग्रंथ गिनांन माला
13. ग्रंथ रोमावली पंचभासरा
14. ग्रंथ पंच अग्नि, तिथजोग ग्रंथ
15. ग्रंथ सत बार, सप्तबार नौग्रह
16. ग्रंथ आत्मबोध
17. ग्रंथ सिष्या दरसण
18. ग्रंथ अष्ट मुद्रा
19. ग्रंथ अष्टचक्र
20. ग्रंथ राम बोध
21. भरथरी जी की सबदी
22. गोपीचन्द्र जी की सबदी
23. चिरपट जी की सबदी
24. जलंधरी पाव जी की सबदी
25. पृथ्वीनाथ जी की सबदी
26. चौरंगीनाथ जी की सबदी
27. काणेरी पाव जी की सबदी
28. हालीपाव जी की सबदी
29. मीडकी पाव जी सबदी
30. हणवंतजी की सबदी
31. नागाअरज जी की सबदी
32. सिध हरताली जी की सबदी
33. सिद्धी गरीब
34. धूँधली मल
35. रामचंद्र जी
36. बाल गुंदाईजी
37. घोड़ाचोली
38. अजैपाल
39. चौंणकनाथ
40. देवलनाथ
41. महादेवजी
42. पारवती जी
43. सिध मालीपाव
44. सुकल हंसजी
45. दत्तात्रे जी

इन तीन प्रतियों में पाई जाने वाली रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य स्रोतों से प्राप्त रचनाएं भी प्रस्तुत संग्रह में संकलित हुई हैं। सबसे मनोरंजक और महत्वपूर्ण रचना चौरंगीनाथ की प्राण सांकली है जो पिंडी के जैन भांडार में सुरक्षित एक प्रति से ली गई है। कुछ रचनाएँ काद्रि मठाधीश श्री श्री चमेलीनाथ जी महाजन की कृपा से प्राप्त हुई हैं। कई अन्य मित्रों ने भी कुछ रचनाएँ भेजी हैं। जोधपुर के डॉ० सोमनाथ जी ने वहाँ की दर्बार लाइब्रेरी से मत्स्येंद्रनाथ की कुछ रचनाएँ उद्धृत करके भेजी हैं। मित्रों की भेजी हुई कई रचनाओं को मैंने संग्रह में स्थान देने योग्य नहीं समझा, क्योंकि वैसे तो इस संग्रह की अनेक रचनाओं की प्रमाणिकता संदिग्ध है, परंतु मैंने जिन रचनाओं को छोड़ दिया है उनकी अप्रामाणिकता संदिग्ध है, परंतु मैंने जिन रचनाओं को छोड़ दिया है उनकी अप्रामाणिकता संदेह से परे है। इस प्रकार अनेक मित्रों की कृपा से यह संग्रह प्रस्तुत किया जा सका है।

गोरख नाथ का समय


मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। मैंने कुछ का संग्रह ‘नाथ-संप्रदाय’ नामक अपनी पुस्तक में किया है (हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद से सन् 1950 में प्रकाशित)। उन कथाओं को फिर से यहाँ दुहराना अनावश्यक है, पर उनके अध्ययन से और अन्य प्रमाणिक वृत्तों के आधार पर मैं जिस निष्कर्ष पहुँचा उसे यहाँ दे देना आवश्यक है। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी-संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।
(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।
(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।
(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

(6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।
(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।
(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है। हमने नाथ संप्रदाय में इन दंतकथाओं की चर्चा की है।

गोरखनाथ के पूर्व ऐसे बहुत-से शैव, बौद्ध और शाक्त-संप्रदाय थे जो वेदबाह्य होने के कारण न हिंदू थे न मुसलमान। जब मुसलमानी धर्म प्रथम बार इस देश में प्रचलित हुआ था तो नाना कारणों से देश दो प्रतिद्वंद्वी, धर्मसाधना-मूलक दलों में विभक्त हो गया। जो शैव-मार्ग और शाक्त-मार्ग वेदानुयायी थे, वे बृहत्तर ब्राह्मण-प्रधान हिन्दू समाज में मिल गए और निरंतर अपने को कट्टर वेदानुयायी सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे। वह प्रयत्न आज भी जारी है। उत्तर भारत में ऐसे अनेक संप्रदाय थे, जो वेदाबाह्य होकर भी वेदसम्मत योग-साधना या पौराणिक देव-देवियों की उपासना किया करते थे। वे अपने को शैव, शाक्त और योगी कहते रहे। गोरखनाथ ने उनको दो प्रधान दलों को पाया होगा-(1) एक तो वे जो योग-मार्ग के